Thursday, July 19, 2012

हृदय-परिवर्तन

जब चाँद की रोशनी मलिन और उबन भरी हो गयी
जब सूरज चार बाँस ऊपर चढ़ गया
तब मैंने सोचा
लावा कहीं भी हो बाहर आयेगा
और जब धरती फटती है तो मुझे पता है
लावा न सही
आग हवा पानी, कुछ न कुछ
बाहर आयेगा और कहेगा-
बन्द करो ये तमाशे
रंगमंच के परदे सभी गिरा दो
रोटियों को चौके के बराबर आकार लेने दो
अपने दिमाग को थोड़ा आराम लेने दो

बन्द करो यह बिसूरना,
बेसुरा रूदन...
इससे पीड़ा ठण्डे कोयले का ढेर बन जाती है
यह तुम्हारे हाथों में धार की जगह
लकड़ी का टुकड़ा पकड़ा देता है
और तुम सबकुछ भूल जाते हो कि
फूल वही अच्छे थे जो टेस्टट्यूब में नहीं बने
आँखें वही अच्छी थीं
जो सबकुछ देखकर समझ लेतीं थीं
और तुम वही अच्छे थे
जहाँ लोगों को पर्याप्त और पूरी रौशनी मिल जाती थी.
तुम्हे क्या लगा धरती ऐसे ही यहाँ तक आ गयी?

Thursday, June 28, 2012

मैं

             मैं

बदल गया हूँ मैं
महसूस कर सकता हूँ अपनी सांसों से
धमनियों में दौड़ते हुए खून से भी
धड़कन की गति
अब धड़कन के गति जैसी नहीं रही
बार बार जल रही माँसपेशियों की गंध से
झलक जाता है
मेरे भीतर का अनियन्त्रित बदलाव
पीव की तरह बाहर आ जाती है
रह-रह कर मेरी कुरूपता- आदमीयत की

मैं जैसा बन गया हूँ
लोगो को हँसी आती है
मगर मैं जानता हूँ मेरे देश की जनता
मेरे ही जैसे, अपने भीतर भटक रही है
आधी सोयी आधी जागी
                                                विक्षिप्त और मरी हुई है,जीवित भी है
आधी-आधी,मेरी ही तरह

                                                और  मैं ये भी जानता हूँ कि
न मैं मुकद्दर का सिकन्दर हूँ
और न ही सिकन्दर का मुकद्दर
क्योंकि दोनों की हाथों में
कुछ  नहीं रहता है अन्त में
                                                ठीक वैसे ही जैसे
सागर में मिलने से पहले गंगा
गंगा- सी नहीं दिखती
                                                और गंगा को समेटने से पूर्व सागर
                                                सागर- सा नहीं रहता
                                          
                                                पर दोनों के बीच का वह, नहीं होना दोनों का
मैं हूँ, और मेरा होना अनिवार्य है
जहाँ से एक ओर सागर
दूसरी ओर गंगा है सदियों से
जैसे मेरे देश की जनता और मेरे बीच
मेरा देश.. 

Wednesday, June 27, 2012

दिन-रात

                                 दिन-रात

दिन
एक उजली  रात है
जिसमें हम जागते हैं
हँसते हैं रोते हैं
करते हैं निष्पादित हर जरूरी काम
सपने में

रात
एक अन्धेरे गलियारे-सा दिन है
जहाँ सूरज तारों में बिखरा है
और हम जागते हुए देखते हैं
सोने के सपने.

तुम्हारा घर

तुम्हारा घर

तुम्हारा घर जिसे आराम कहते हैं
थकी माँदी साँझ कहते हैं

एक तीली, एक चुटकी, एक झपकी
महक अगरू की लहरती
दिन ढले की
रात रानी सी गँधीली बात तेरी
बैठ जाती हृदय में
दिन ढले का एक सूरज
कँपकपाँता
पानियों में याद आता.

Tuesday, June 26, 2012

गहरी रात

                 गहरी रात

कुछ रातें बहुत गहरी हो जाती हैं
कभी-कभी
जैसे वर्त्तमान,भविष्य से निकलकर
खड़ा हो जाता है
भूत के पृष्ठ पर
कुछ पल के लिए

फिर तुम्हारी आँखें मुझे खोजती हैं
उसी तरह जैसे
भविष्य हावी रहता है
वर्त्तमान की आँखों में
और भूत संघर्ष करता है
पहचान के लिए उन ही आँखों में
अपनी सारी जटिलताओं के साथ

हाँ मैं उन्हीं गहरी-सी रातों में
तब उलझ जाता हूँ
पहुँचने के लिए किसी एक निर्णय पर
ढेर सारे निर्णयों के बीच

और तुम,उसी क्षण आकर
मुस्कुरा देती हो
जाने मेरी याद में या मेरी हताशा में
न जाने कहाँ (भूत,भविष्य,वर्त्तमान)
से निकलकर

और तब बन जाता हूँ
मैं भी
एक गहरी रात....।

तुम्हारे बिना

                       तुम्हारे बिना

मरना क्या होता है
एक पल की खुशी का भी छिन जाना
जीवन भर की प्यास के बाद भी
न मिलना
एक घूँट पानी और
चाहना कि जी लूँ
तुम्हारे बिना...
शायद, मगर जाने क्या सोचकर
एक आस बिछ जाती आज भी
सुबह-सुबह सूरज की धूप-सी
साँझ ढले सिमट जाती
रोज-रोज
एक साँझ ढल जाती
सुबह-सुबह दिन कहीं सो जाता
ओढ़ चादर रात की ।
पर, दिख जाते हैं हरे-हरे पेड़
सूखते जंगलों में
बावजूद इसके
पहाड़ पर खड़ा गुलमोहर अकेला
लाल-लाल फूलों से लदा हुआ
प्रतीक्षा में है सूख जाने के
तुम्हारे बिना.... ।

पत्ती

               पत्ती
वह पत्ती है
पत्ती ही है
धरती से निकली पत्ती

पेड़ की मोटी छाल के भीतर से
धरती के जाने किस भाग
किस अंश से बनी
पेड़ की जड़ों में दौड़ती हुई
ऊपर की सबसे ऊँची डाल पर
ताँबे की सी लाल-लाल
चमक रही है

मेरी आँखों ने ढूँढ ही लिया
आखिर में उसे
धरती की पूरी पड़ताल के बाद
अन्नत वर्षों के

अब,अनींद की बिमारी
हो जायेगी ठीक स्वतः
क्योंकि भूख मिट गयी आज
अन्न की तपस्या साधकर
उस पत्ती की ताँबायी कोमलता से
हो जाना चाहता हूँ अँधा
कि कहीं चुभ न जाये कोई काँटा
और खो न जाये कहीं
वह पत्ती.